गुरुवार, 28 नवंबर 2013

कितनी एहतियात बरतती है न माँ :)

















खट्टी-मीठी पारले की गोली का
स्‍वाद याद है न ?
ये जिन्‍दगी भी बिल्‍कुल उसके जैसे है
कहीं ज्‍यादा खट्टी तो कहीं
हल्‍की सी एक मिठास लिये
जब कोई छोटा बच्‍चा
उस गोली को खाता है तो
माँ उसे मुँह के अंदर नहीं डालने देती
कहीं उसके गले में अटक न जाये
भले ही उसकी वजह से
माँ की साड़ी और बच्‍चे के हाथ चिपचिपे हो जायें
कितनी एहतियात बरतती है न माँ :)
...
कई बार ऐसा भी हुआ है कि
खाते वक्‍़त  ये
ज़बान और तालू का साथ छोड़
उतर गई गट् से गले के नीचे
लगता कुछ अटक गया पल भर को
फिर देर तक गोली का स्‍वाद
ज़बान पर बना रहता है
पर गले में उसकी अटकन के साथ
हम हैरान रह जाते हैं !!
...
फिर काफ़ी देर तक हम
दूसरी टाफी का स्‍वाद लेना पसंद नहीं करते
लेते भी है तो जबान और तालू का
संतुलन बनाकर
जिंदगी भी
कुछ ऐसे ही संतुलन की उम्‍मीद
रखती है हमसे !!!
....

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

तेरा आंचल मेरा सारा ज़हां ....













मैने तुम्‍हें जब भी कहा माँ यकी मानों,
सज़दे में सर मेरा हरदम हो जाता है ।

दौर कैसा भी मुश्किल आया हो वहां,
तेरी हर दुआ का असर हो जाता है ।

तुझे धरती कहूं या अम्‍बर बता मुझे,
तेरा आंचल मेरा सारा ज़हां हो जाता है ।

फिक्र के साये में कटे हर पल तेरा जो,
मेरा हर पल बेफि़क्र हो गुजर जाता है ।

साथ तेरा हो तो खुशियों को खबर होती,
बिन तेरे उदास लम्‍हा सदा चला आता है ।

रविवार, 16 जून 2013

आशीषों तक पापा !!

स्‍मृतियों के आँगन में 'पापा' आज भी आप .... हर पल मेरे साथ रहते हैं ...
इस फादर्स डे पर मेरी एक प्रिय रचना ... लाडली पर 

















  
यादों की गलियों में लम्‍हा - लम्‍हा मेरा
जाता है बस आपकी आशीषों तक पापा ।

मैं बड़ी होकर भी तो नहीं बड़ी हुई कभी,
आपकी नजरों में रही हूं छोटी सदा पापा ।

मां की डांट से बचाते चुपके से समझाते,
मेरे लिये हंस के बहलाते मां को जब पापा ।

बचपन के दिन वो बचपन की बातें बताओ,
हम चाहकर भी क्‍यूं नहीं भुला पाते पापा ।

मैं भूली हूं न भूलूंगी कभी जिन्‍दगी मेरी तो,
आपके स्‍नेह की उंगली थाम के चली है पापा ।

मुस्‍कराहट आपकी निशानियां वो गुडियों की,
आज भी कैद हैं वो मेरी छोटी संदूक में पापा ।

मन मचल जाता है किसी बच्‍चे की तरह अब भी,
दहलीज़ पे जब कभी आकर बेटा कहते हो पापा ।

लिखी है हर याद आपके नाम बच्‍चों सी वो बातें,
जानती हूं पढ़कर होंगे आज भी मुस्‍कराते पापा ।

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

माँ का साया .... (6)

माँ का सामना करते ही आँखे भीग गई थीं ... उसे खामोश देख माँ ने कहना शुरू किया मैं जानती हूँ तुम कहना चाहती हो बहुत कुछ पर कह नहीं पाओगी, हर बार की तरह इस बार भी तुम्‍हारी खामोशी ने ढेरों सवाल मेरे आगे कर दिये हैं, रिश्‍तों का होना ही नहीं इनका निभाना मायने रखता है मन के रिश्‍ते आत्‍मा से जुड़े होते हैं ये माँ का सम्‍बोधन मेरे लिए जहाँ सम्‍मान है वहीं तुम्‍हारे लिए वह सुकून है। मैं अपने हर बच्‍चे की तरह तुम्‍हारे लिये भी यही चाहत रखती हूँ कि बहुत ऊंचाई तक पहुँचो तुम,  जो मुझ पर विश्‍वास है तुम्‍हारा उसमें कभी भी संशय न आये, तुम्‍हारे हर सवाल का जवाब मैने दिया है, जो तुमने पूछे हैं और उनका भी कई बार देती हूँ जो तुम्‍हारे लिए उलझन बनते हैं या तुम्‍हारे रास्‍ते की रूकावट हो जाते हैं। यकीन मानो माँ का मन अपने हर बच्‍चे के लिये एक सा ही होता है, वो कहीं भी रहे किसी हाल में रहे उसे अहसास होता है अपने बच्‍चे की जरूरतों का पर वो कहती नहीं है कभी तो उसका यह मतलब बिल्‍कुल नहीं लगाना चाहिये कि वह तुमसे स्‍नेह नहीं रखती।
तुम सबकी खुशियों के लिये मैं संकल्‍पवान हूँ, जब कहीं कुछ तुम गलत करते हो तो मैं स्‍वयं को दोषी मानती हूँ, जब कहीं कुछ भी अच्‍छा घटता है या होता है तो उसके लिए ईश्‍वर की शु‍क्रगुजा़र होती हूँ किसी के प्रति तुम्‍हारे मन में द्वेष न हो, सच के रास्‍ते पर चलो मुश्किलें तो आएंगी पर सीख भी तभी पाओगे ... लेकिन आगे के रास्‍ते आसान हो जाएंगे, तुम्‍हें सिखाने के लिए मैं भी रोज सीखती हूँ कुछ नया कभी - कभी तुम्‍हारे सवाल मेरे लिये मात्र सवाल ना होकर जिंदगी का सबक बन जाते हैं पर उद्देश्‍य मेरा एक ही होता है तुम सबकी खुशी, जिससे मुझे मिलता है संबल जो मुझे देता है एक नई दिशा जीवन को जीने की..... तुम मुझे आवाज दो या नहीं मैं तो हमेशा तुम सबके साथ होती हूँ फिर भय कैसा ?
उसकी डायरी का यह पन्‍ना पढ़ते वक्‍त उसकी माँ की आकृति स्‍पष्‍ट हो मेरी आँखों में उतर आई थी ममता का यह रूप कितना प्‍यारा और कितना सजीव लगता है न उसकी किस्‍मत से रश्‍क़ भी होता है पल भर के लिए फिर सोचती हूँ ... सच ऐसी माँ का मिलना सौभाग्‍य है उसके लिए जिनकी  छाया में एक नया जीवन मिलेगा उसे....

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

माँ का साया .... (5)


















इस पन्‍ने पर .... आकर मैं एक बारी ठहर गई
उसकी खिलखिलाहट यूँ तो हर पन्‍ने पर झाँकती थी, उसकी मासूमियत घूम फिर के बार - बार माँ को पुकारती, उसकी आवाज हमेशा बेचैन ही रहती जाने क्‍यूँ, ऐसा लगता जाने कब से बिछड़ी वो माये से, हाँ कभी - कभी जब माँ व्‍यस्‍त होती थी काम में तो वह आवाज लगाती ठोड़ी को घुटनों पर रखकर आँख बंद कर पुकारती माये आओ न, कभी तो उसका पुकारना जायज होता, कभी - कभी वो बेवजह भी आवाज लगाती, कभी कहती मुझे भूख लगी है तो कभी कहती माँ इसका मतलब क्‍या होता है ....  उसकी हर बात का जवाब लिये माँ हाजिर हो जातीं।
यहाँ कहती है वो - माँ से किसी ने एक दिन पूछ ही लिया ये आपकी बेटी, माँ ने भी उसी सहजता से कहा - हाँ ये मेरी बेटी है, सच है कि मैने इसे जनम नहीं दिया, पर संस्‍कारों की धूप और स्‍नेह की छाँव इसे दोनो मेरे आँचल में मिलती है ये मेरे पास रहे या दूर एक आहट हम दोनों के बीच रहती है, जहाँ खामोशी भी बात करती है हमारे बीच तो वहीं इसका बार-बार आवाज देना मुझे दर्शाता है इसके भय को इसने छोटी सी उम्र मे पाया कम खोया ज्‍यादा है, मैं इसे कैसे मिली, कहाँ मिली ये बात मायने नहीं रखती, मायने रखता है हम दोनों का मिलना, फिर मात्र सम्‍बोधन ही नहीं दिल से उस रिश्‍ते में बँधना, इसने जो इतना कुछ खो दिया है तो यह मन ही मन डरती है मुझे भी खोने से, इसका डर इसे खामोश बैठने नहीं देता, ये उसी डर से मुझसे और जुड़ती चली जाती है, बहानों से मुझे पुकारती है मैं समझती भी हूँ .... इसकी हर आवाज पर मैं पलट कर हाँ भी कहती हूँ ... कई बार चुप रहने को कहती हूँ तो कई दफ़ा डाँट भी लगाती हूँ ... फिर कई बार इसके आवाज देने पर मैं जानबूझ कर अनसुना कर देती हूँ, चाहती हूँ ये मेरे बिना भी जीना सीखे, मैं साये की तरह साथ हूँ इसके पर इसे खुद पर आश्रित नहीं करना चाहती... वो स्‍तब्‍ध थी माँ की सोच पर इतनी बड़ी-बड़ी बातों के बीच कहाँ है वह और क्‍या है उसका अस्तित्‍व वह यह सोचते हुए वहीं ठहर गई थी, तभी उसने देखा कि माँ ने उसे देख लिया है छिपते हुए ... माँ की आवाज कानों में पड़ते ही वह माँ के सामने थी ...
यह उसकी सोच थी ... उसकी माँ क्‍या सोचती हैं उसके बारे में पढ़ेंगे हम अगले पन्‍नों पर ... 

मंगलवार, 26 मार्च 2013

माँ का साया .... (4)


उसका बातूनी होना . अच्‍छा लगता है, लेकिन वो सबसे बात नहीं कर पाती, घुलने-मिलने में भी सबसे बहुत वक्‍त लेती है, वो और उसकी चुप्‍पी .... दोनो मन ही मन जाने कितना कुछ साझा कर लेती थीं अपने आप से... जब भी  देखा है चुप रहते हुए तो सोच में पड़ जाती हूँ कई बार ये वही है जो इतनी बातें करती है जिसे चुप होने के लिये कहना पडता है उसकी माँ को ... कई बार उसका रूठ जाना, चुप रहना दर्शाते उसकी नाराजगी को, उसकी शिकायतों की पोटली हमेशा उसके काँधे पर ही रहती थी मौका मिला नहीं कि शुरू हो जाती, तुम तो मुझसे प्‍यार नहीं करती, भैया और दीदी ही तुम्‍हें भाते हैं मुझे तो डाँट देती हो ...माँ असमंजस में पड़ जाती कई बार उसे समझाने के फेर में, पर शायद यह हर बाल मन की व्‍यथा रहती है ... वो लिखती है मुझे हर दिशा में माँ के होने का अहसास होता है, साये में उनके मेरा हर कदम उत्‍साह के साथ धरा पर पड़ता है ऐसा आभास भी हुआ है कई बार जैसे ऊपर ही ऊपर मैं उड़ रही हूँ ... ये एहसास एक झरोखे से मन में झाँकते रहते हैं हरदम और मैं घुमती रहती हूँ बस फिरकनी की तरह ... चारों ओर
वो कई बार सपने में देखती खुद को माँ से दूर जाते हुये तो चिल्‍ला उठती भय से ... तब माँ ही उसे सम्‍हालती थपकियाँ देती और कई बार गुनगुनाती कोई लोरी ... पता नहीं किसमें जादू था माँ की आवाज में या फिर उन शब्‍दों में जो माँ की वाणी का ओज पा मुझे सपनों के गांव ले जाते ... माँ वहाँ भी साथ होती परी के रूप में ... हाँ उन्‍हें परी कथा सुनाना बहुत भाता है, या फिर काबुली वाला जिनके किस्‍से सुनाते हुये माँ की आँखों में एक चमक होती थी और उसके चेहरे पर माँ के पास होने की मुस्‍कान ...
आगे वो करती है ... अपनी पहली होली का जिक्र कोई भी त्‍योहार होता माँ की जिम्‍मेदारियाँ और काम हजार गुना बढ़ जाते सबकी फरमाईशों को पूरा करने में खुद से लापरवाह हो ... तन-मन से पूर्णत: समर्पित हर चेहरे पर मुस्‍कान और मन में खुशी देने में लग जातीं, मेरे छोटे हाँथों से हर बड़ा बचकर निकल जाता, और उलटे मेरे ही गालों पर गुलाल मलते हुये रंग लगाते हुये भाग जाते मैं किसी को रंग लगा ही नहीं पा रही थी, मेरा हम उम्र कोई था भी नहीं आस-पास मैं लगभग रोते हुए माँ के पास पहुँची और बोली ... आप तो काम करती रहती हैं हर वक्‍त मेरे साथ कोई भी होली नहीं खेल रहा सब मुझे ही रंग कर चले गये मुझे भी खेलना है किसके साथ खेलूँ बताओ न ...
बस पांच मिनट दो ... मैं बताती हूँ तुम्‍हें किसके साथ रंग खेलना है ....घड़ी देखना तो आता नहीं था माँ ने कहा तो इतना ही वक्‍त बीता होगा ... वो आईं  और उनके हाँथों में गुलाल की प्‍लेट थी, जिसमें हर रंग था ...  मुझे भगवान कृष्‍ण की मूर्ति के पास ले जाकर बोलीं ... पहला रंग तुम इन्‍हें लगाओ ... क्‍यूँकि होली खेलना इन्‍हें भी खूब भाता है ... और फिर एक चुटकी अबीर कान्‍हा को लगवाने के बाद वो मेरे सामने पालथी मार बैठ गईं ... चलो हम तुम होली खेलते हैं ... और मेरे गाल से अपना गाल सटा हर रंग में मेरे साथ वो खेलती रहीं ....इन शब्‍दों को पढ़ लगा उसकी माँ कितनी प्‍यारी है ... सबकी माँ ऐसे ही होती होगी ... :)
फिर मिलेंगे ... किसी नये रंग के साथ आज तो आपको भी रंग खेलना होगा .... किसी अपने के संग ... तो शुभकामनाएँ रंग-रंगीले त्‍योहार की .... 



सोमवार, 18 मार्च 2013

माँ का साया .... (3)















ख्‍यालों की नदी में ...हैरानियों का गोता कितना अपना सा लगता है ... जैसे ये शब्‍द जहाँ दिल की गहराईयों से वह कहती है जब - माँ तो अल्‍लाह की इक रज़ा है जिंदगी बिन उसके तो बस कज़ा है, आँख नम हो आई इन पंक्तियों को पढ़ते हुये उसके मन का यह कोना कभी - कभी बिल्‍कुल अपना सा लगता है और उसकी माँ बिल्‍कुल अपनी सी लगने लगती है, जिसे वह पृष्‍ठ दर पृष्‍ठ मुझे सौंपती जा रही थी और सच कहूँ तो मेरा जी बिल्‍कुल नहीं चाह रहा था इसे छोड़ने का लग रहा था ये पानी का गिलास होता तो एक साँस में ही अपने भीतर उड़ेल लेती पर ... ये उसकी भावनाएँ थीं जिन्‍हें मैं जीना चाहती थी बिल्‍कुल उसकी तरह जैसे उसने इन्‍हें शब्‍द-शब्‍द नम आँखों से सींचा था कभी वो इनके साथ मुस्‍कराई थी तो कर बैठती थी शिकायतें ... आप सोच रहे होंगे शिकायतें जी हाँ शिकायतों की पूरी पोटली तैयार थी अगले पन्‍नों पर गुब्‍बारे से मुँह और अपलक निहारती सी ये माँ को जब अपनी पोटली खोलने लगी तो मैं अवाक् रह गई और इसे पढ़ते ही मैं बिन मुस्‍कराये नहीं रह सकी, जब इसकी पहली शिकायत इसकी पोटली से निकली ... हर वक्‍त बस काम करती रहती हैं आप, ये भी नहीं सोचतीं कोई आपके बिन कैसे रहेगा ... तो माँ ने व्‍यस्‍तता के बीच कहा अरे तुम्‍हारे सामने ही तो हूँ ...तुम्‍हारे सारे काम कर दिये खाने को दे दिया तुम्‍हें तैयार कर दिया अब क्‍या बाकी रहा, अब तो मैं अपना काम कर ही सकती हूँ न ... मुझसे बात कौन करेगा ...ओह कितनी चिंतित है यह मुझे विस्मित कर गई उसकी यह बात .... कुछ विस्‍मय के पल आगे भी हैं, तो फिर मिलते हैं उन पलों के साथ जल्‍दी ही ...

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

माँ के साये में .... (2)


















माँ के साये में  ... वो बेखौफ़ हो उठ जाती सूरज की किरणों का अभिनन्‍दन करने को जो ख्‍याल बन हर लम्‍हा उसके साथ चलती थीं, कभी माँ को नींद में ही पुकारती माँ भी नींद में बुदबुदाती आवाज़ में कहती .. बेचैन आत्‍मा चैन से सोने भी नहीं देती, लम्‍हा - लम्‍हा सरकता और वो ख्‍यालों की उँगली थाम परिक्रमा करने लगती माँ की, इसी क्रम में जाने कब सुबह से शाम हो जाती और फिर जब नींद से आँखे बोझिल होती तो आवाज देती माँ को और उधर से आवाज आती सो जाओ, बस फिर क्‍या था पलकें मुँदने लगती, यह उसके जीवन का रोज का घटनाक्रम था ... इन बातों से उसे कभी लगता ही नहीं थी कि वह अकेली है जब भी मन किया एक दस्‍तक़  ... कभी-कभी तो माँ पलट कर उसकी बात का जवाब भी नहीं देती थी पर वो मन ही मन जाने कितना कुछ कह डालती ... कुछ भी अनकहा नहीं रहने देती ... मैं हैरान हूँ उसकी डायरी का यह पन्‍ना पढ़ते हुए ... आपको कैसा लग रहा है कि ये कोई लड़की है या फिर कोई पागल जिसे सनक सी हो आई है माँ के ख्‍यालों की जो  डूबती उतरती रहती है ख्‍यालों की नदी में ... अगले पन्‍ने पर मैं चलूं उसके साथ कुछ और हैरानियों का गोता मारने ... तब तक आप मुझे अपने विचारों से अवगत कराइये...

बुधवार, 13 मार्च 2013

माँ के साये में .... (1)














मुझे एक बच्‍ची की डायरी मिली,जिसे पढ़ते हुये मैने पाया जिसका शब्‍द-शब्‍द अभिषेक करता रहा माँ की ममता का, कभी वो एक सपना देखती नवजात शिशु का जो सफेद कपड़े में लिपटा माँ के बगल में लेटा है और बंद नन्‍हीं मुट्ठियों के बीच उसने माँ का आँचल पकड़ रखा है इस भय से कि माँ उसे छोड़कर चल न दे, जिस दिन उसे ये सपना आया वो खुशी से रो पड़ी, माँ कितना प्‍यार करती है उससे, उसे यूँ माँ की ममता मिली और इसतरह वो उस रात की कर्जदार हो गई, उसने इस सपने को जिस दिन देखा तो उसने उगते सूरज से कहा ... सूरज दादा आज तुम जल्‍दी क्‍यूँ आ गये माँ चली गई न, उसकी मासूमियत पे किरणें मुस्‍कराते हुये कहने लगीं चलो हम तुम्‍हारी माँ का ख्‍याल बन जाते हैं और हर पल तुम्‍हारे साथ रहेंगे, माँ के साये की तरह ...
इस सफ़र के अगले पन्‍ने पर हम जल्‍दी ही चलेंगे
तब तक बच्‍ची को माँ के साये में रहने देते हैं

गुरुवार, 17 जनवरी 2013

तुम ये तर्पण करना !!!

माँ ... मैं एक कोशिश बनी
हार के क्षणों को अपनी विजय में
परिवर्तित करने के लिए
पर तुम्‍हारे मन का संताप बन गई
....
मैं एक कोशिश बनी
पापा का मस्‍तक ऊँचा कर जाऊँ
नहीं कर सकी ऐसा
और ताउम्र की घुटन बन गई
...
मैं हर क्षण लड़ी
भइया के काँधे पर चढ़ विदा होने के लिए
रक्षा का वचन लेते - लेते
मैं उनकी आँख के कोरों का आँसू बन
मन का संत्रास बन गई
....
मैं बनना चाहती थी अपनी
अपनी बहनों के लिये आदर्श
सखियों की नज़र का अभिमान
बहुत अन्‍याय किया मैने
हर एक के साथ और हिचकी बन
उनके गले का मौन बन अवरूद्ध हो गई
जीवन पर्यन्‍त के लिए
....
तुम जब भी करो मेरी मुक्ति के लिए
शांति का पाठ  तो उन पलों में
एक दुआ करना
किसी भी जनम में बिटिया न बनूँ
ये कहते हुये मन से बस मन से
तुम ये तर्पण करना !!!